मुंबई । उद्धव ठाकरे के हाथ से शिवसेना का नाम और धनुष-बाण का निशान गया है. अब असली लड़ाई शुरू होगी 150 करोड़ के पार्टी फंड हथियाने पार्टी की संपत्ति तथा समूचे महाराष्ट्र में अलग-अलग शाखा कार्यालयों पर कब्जे जमाने की. मालूम हो कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने शिवसेना की बागडोर अब एकनाथ शिंदे के हाथ दे दी है. इस तरह से संविधान के जानकार उल्हास बापट की राय है कि पार्टी फंड शिवसेना (शिंदे) के पास जा सकता है लेकिन दादर का शिवसेना भवन और ठाकरे परिवार से जुड़ी अन्य प्रॉपर्टीज ठाकरे गुट के पास ही रहेगी. दरअसल ये प्रॉपर्टीज पार्टी के नाम पर नहीं बल्कि शिवाई ट्रस्ट के नाम पर खरीदी गई है. संविधान के जानकार की राय में सामना अखबार पर भी फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि यह भी अलग से पब्लिकेशन के नाम पर है. अब एक नया मामला पार्टी व्हिप को लेकर आने की बात कही जा रही है. दरअसल तकनीकी रूप से 
शिवसेना के वे 15 विधायक और 5 सांसद भी शिवसेना के व्हिप से जुड़े हैं जो अबतक उधवा ठाकरे के साथ है. यानी शिवसेना की कमान चुनाव आयोग द्वारा एकनाथ शिंदे को सौंपे जान के बाद अब शिवसेना के दो गुट होने की मान्यता रद्द हो गई है. अब शिवसेना मतलब शिंदे शिंदे मतलब शिवसेना. इसलिए शिवसेना अगर कोई व्हिप जारी करती है तो ठाकरे खेमे के विधायकों के पास दो ही रास्ते बचते हैं. या तो वे व्हिप के खिलाफ जाएं या शरणागति स्वीकार करें. अगर वे व्हिप के खिलाफ जाते हैं तो उन्हें पार्टी अयोग्य घोषित कर देगी और अगर वे व्हिप के साथ जाते हैं तो इसका मतलब होगा सरेंडर. यानी अब शिंदे गुट उद्धव ठाकरे को अगला झटका देने की तैयारी में है. राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रवक्ता संदीप देशपांडे ने तो ठाकरे गुट से आज ही यह सवाल उठा दिया है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्शन कमीशन के फैसले को नहीं पलटा उसे स्टे नहीं दिया तो क्या ठाकरे गुट के 15 विधायक शिवसेना के व्हिप को मान कर सरेंडर करेंगे या अपनी विधायकी त्याग कर इस्तीफा देंगे और चुनाव के रण में कूद कर मर्दानगी दिखाएंगे. हालाँकि कुछ हद तक आगे क्या होने वाला है इसकी झलक उद्धव ठाकरे ने भी शनिवार को दे दी है. उद्धव ठाकरे ने शनिवार को अपने मातोश्री बंगले के बाहर कला नगर चौक पर खुली कार पर चढ़कर अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए कह दिया कि चुनाव की तैयारी में लगो. गद्दारों को गाड़ कर ही अब चैन से बैठो. पर सवाल यह है कि उद्धव खेमे के विधायक इस्तीफा देकर फिर चुनाव में कूदने का कलेजा रखते हैं या वे अपना टेन्योर पूरा करने की मंशा रखते हैं? अगर वे चुनाव लड़ने से बचते हैं तो उनके लिए आसान रास्ता एकनाथ शिंदे की शरणागति हो सकती है. यानी ठाकरे के बचे-कुचे कैंप में फिर सेंध लग सकती है. रही बात सुप्रीम कोर्ट की तो इस बात की उम्मीद कम ही नजर आ रही है कि वह चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्था के फैसले को बदलने की या स्टे देने की कोशिश करे. अब तक कि मिसालों को देखें तो सुप्रीम कोर्ट ऐसा करने से बचता रहा है. लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे दे दिया या फैसले को पलटा तो एक दूसरी स्थिति पैदा हो सकती है. संविधान सर्वोपरि है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के पास संविधान की व्याख्या का अधिकार है. इसलिए इलेक्शन कमीशन का फैसला सुप्रीम कोर्ट पर लागू नहीं होता है लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट का कोई फैसला आता है तो वो इलेक्शन कमीशन पर लागू होता है. देखना यह होगा कि खुद सुप्रीम कोर्ट क्या तय करता है.