सूर्य उपासना से जुड़ा पर्व छठ पूजा का शुभारम्भ नहाये खाये से देश से लेकर विदेश तक व्रती परिवार में शुरू हो गया है जो इस वर्ष 30 अक्टूबर की संध्याकालीन पूजन के साथ 31 अक्टूबर को प्रातःकालीन पूजन के साथ समाप्त हो जायेगा। इस पर्व की महिमा दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। कोरोना काल में जहां हर पर्व मनाना बंद हो गया थ उस काल में यह पर्व अपने सीमित संसाधन से व्रती परिवार ने श्रद्धा पूर्वक मनाया। इस पर्व में पवित्रता का ध्यान सबसे पहले रखा जाता है। सूर्य उपासना का यह पर्व अपने आप में अनूठा पर्व है जहां डूबते सूर्य की भी उपासना होती है। उगते सूर्य की उपासना तो सभी करते है। यह पर्व परिवार की सुख शांति, समृद्धि, औलाद सहित हर तरह की मनोकामना पूर्ण होने की आस्था से जुड़ा हुआ है। इस पर्व की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है जहां इस व्रत को प्राचीन काल से ही नाग, किन्नर, मानव में करने के प्रमाण मिलते है। संकट काल में द्वापर युग में दौपदी द्वारा इस व्रत को करने एवं पांडवों को अपना राज्य मिलने की भी बात प्रमुख रही है। यह व्रत विहार , झारखंड के हर परिवार में श्रद्धा के साथ प्रति वर्ष किया जाता है। इस प्रांत के निवासी देश, विदेश जहां भी रहते है, श्रद्धा के साथ वही इस व्रत को करते है। इसी करण यह व्रत आज अंतर्राष्टीय रुप ले चुका है। देश का हर कोना कोना आज इस व्रत की गूंज से गुंजयमान तो हो ही रहा है, मारिशश, फीजी, सूरीनामी आदि देश में भी इस छठ पूजा की धूम मची हुई है। इस पर्व को करने वाले की हर मनोकामना पूरी होती है। 
यह पर्व नदी, तालाब या जलाशय के आस पास किया जाता है। षष्ठी तिथि को अस्थाचल होते हुए सूर्य को प्रथम अघ्र्य इस कामना एवं विश्वास के साथ कि उदय के समय हमारी झोली खुशियों से सूर्य देव की असीम कृपा से सदा के लिये भर जायेगी , दूसरे दिन उगते सूर्य को अघ्र्य देकर व्रत की समाप्ति होती है। इस अवसर पर घाट का दृश्य अति मनोरम होता है। ईख से अच्छादित वातावरण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। 
इस पर्व में प्रसाद के रूप में हर प्रकार के मौसमी फल केला, सेव, संतरा, निंबू, मौसमी, अनार, अन्नानाश, नारियल, मूली, अदरख , गन्ना, कद्दू,, जमीनकंद आदि के साथ आटा एवं गुड़ से बना ठेकुआ होता है। इस सारे प्रसाद को एक टोकरी में पीले वस्त्र में बांधकर कंधे पर ईख रखते हुये व्रती परिवार घाट तक पहुचता है जहां पूजा बेदी के सामने प्रसाद की टोकरी रखकर सूर्य की अराधना की जाती है। जल में खड़े होकर संध्याकाल में डूबते हुये सूर्य को पूजा थाली के साथ गंगाजल से अघ्र्य दिया जाता एवं दूसरे दिन प्रातःकाल उगते सूर्य को गंगाजल एवं गाय के दूध के साथ अघ्र्य देते हुये पूजा की समाप्ति हो जाती। फिर प्रसाद वितरण किया जाता। यह दृश्य भी अपने आप में मन हरने वाला होता है जहां घाट पर अपनी झोली फैलाकर श्रद्धा के साथ प्रसाद मांगने की कत्तार लगी रहती। पूजा घट का भी दृश्य मनभावन होता है। छठ का गीत एवं घाट का मनभावन दृश्य इस पर्व की गरिमा में चार चांद लगा देता है। जिससे यह पर्व आज क्षेत्रीय न होकर अंतर्राष्ट्रीय हो चला है।