इंदौर  ।   शहर के हृदय स्थल पर जहां इतिहास राजवाड़े के रूप में अपनी गौरवगाथा कहता है, वहीं आस्था का केंद्र बांके बिहारी मंदिर भक्तों को भगवान का विग्रह दिखाकर और वास्तुकला में रुचि रखने वालों को अपनी नक्काशी से आकर्षित कर ही लेता है। यह एक ऐसा मंदिर है जिसने शहर के विकास को उस वक्त से देखा जब यहां सूबेदारी का पहला अध्याय शुरू हुआ था। सैकड़ों वर्ष पुराना यह मंदिर जब बदहाली का शिकार हुआ तो इंदौर विकास प्राधिकरण ने इसकी सुध ली और करीब डेढ़ करोड़ रुपये खर्च कर एक बार फिर इस भव्य मंदिर की खूबसूरती लौटाई। अब यहां कला वीथिका बनाने की भी योजना है। शहर में पहले सूबेदार मल्हारराव होलकर ने जहां राजवाड़े को आकार दिलाया, उसी के समीप उनकी पत्नी हरकुबाई साहेब ने कृष्ण भगवान को समर्पित बांके बिहारी मंदिर बनवाया। मंदिर में स्थापित श्रीकृष्ण का विग्रह वृंदावन में बने बांके बिहारी मंदिर में स्थापित विग्रह की तरह होने के कारण मल्हारराव होलकर ने इस मंदिर का नाम ही बांके बिहारी मंदिर रख दिया और तब से ही यह मंदिर इसी नाम से जाना जाता है। जबकि इस मंदिर का वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर, वहां की पूजन पद्धति और उत्सव से कोई सरोकार नहीं है। दिलचस्प बात तो यह है कि यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी भी उसी दिन मनाई जाती है जब मथुरा में मनती है।

श्रीकृष्ण के साथ दत्तात्रेय भी हैं यहां

दो मंजिला इस मंदिर में श्रीकृष्ण के तीन विग्रह के साथ यहां दत्तात्रेय भगवान का भी विग्रह है। यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की तरह दत्तात्रेय जयंती भी मनाई जाती है। दो मंजिला इस मंदिर का हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है। जिसमें फर्श से अर्श तक सुधार कार्य किया गया है। जिस वक्त मंदिर बना था उस समय यहां जिस लकड़ी का उपयोग किया गया था उन्हें ही दुबारा सजावट में इस्तेमाल किया गया। प्रथमतल पर भगवान की मूर्तियां स्थापित हैं और ऊपरी मंजिल में अब कला वीथिका बनाने की योजना है।

पंचअवतार की होती है पूजा

मंदिर की पुजारी तपस्विनी विमलभाईजी विराट के अनुसार मंदिर में पूजन पद्धति महानुभव पंथ के अनुसार की जाती है। यहां भगवान के जितने भी विग्रह हैं वे सभी ब्रज के उन पत्थरों को तराशकर बनाए गए हैं जिनपर भगवान श्रीकृष्ण ने लीलाएं की थी। मंदिर में पंचअवतार (श्रीकृष्ण, दत्तात्रेय, चक्रपाणी महाराज, चक्रधर महाराज और गोविंद प्रभु) की पूजा होती है और श्रावण मास की पूर्णिमा के एक दिन पूर्व अर्थात चतुर्दशी के दिन पोतपर्व मनाया जाता है। इस दिन नारियल पर सूत लपेटकर उसे सुपारी और राखी के साथ भगवान को अर्पित किया जाता है। मान्यता है कि यह अर्पित करना भगवान को वस्त्र अर्पित करने के समान है। मंदिर में राधारानी की पूजा नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि वह भी श्रीकृष्ण की सेविका ही थी और पंथ भगवान की पूजा करने की बात करता है।